गौरांगो जयंती :फाल्गुन पूर्णिमा को हुआ था श्री चैतन्यमहाप्रभु का जन्म

By Tatkaal Khabar / 23-03-2021 03:09:04 am | 16356 Views | 0 Comments
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 श्री चैतन्यमहाप्रभु का जन्म फाल्गुन पूर्णिमा के दिन ही हुआ था। उन्होंने संपूर्ण भारत को कृष्ण भक्ति के एक सूत्र में पिरोया और समाज को जाति भेद भुलाकर मानवीयता का संदेश दिया था।  भक्ति पुरुषों में चैतन्य महाप्रभु का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है, जिनका जन्म होलिका दहन (फाल्गुन पूर्णिमा) के दिन हुआ था। नीम के वृक्ष के नीचे जन्म होने के कारण इन्हें निमाई कहा गया। सर्वांग गौरवर्ण होने के कारण उन्हें गौरांग, गौरहरि, गौरपद, विश्वंभर भी कहा जाता है। श्रीकृष्ण के परम भक्त महाप्रभु चैतन्य  पुरातन विद्या केंद्र नवद्वीप (नादिया जिला), पश्चिम बंगाल में जन्मे।  

 बचपन में ही उन्होंने व्याकरण, न्याय व धर्म क्षेत्र में असाधारण ज्ञान अर्जित कर लिया था। सन् 1508 में पिता की मृत्यु के पश्चात  गया में उनकी भेंट ईश्वरपुरी नामक संत से हुई और उन्हें वैष्णव जगत के दशाक्षरी महामंत्र  की दीक्षा प्राप्त हुई। इस तरह निमाई का जीवन ही बदल गया। वे कृष्ण भक्ति में ऐसे लीन हुए कि वैष्णव धर्म के महान संतों में स्थापित हो गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय के आदि पुरुष के रूप में जाने गए। गया के गदाधर तीर्थ में उन्होंने 32 अक्षरीय तारक ब्रह्म महामंत्र-‘हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण हरे हरे! हरे राम ,हरे राम, राम राम हरे हरे!’ का जयघोष पहली बार किया। गया से नादिया लौटकर वे कहते थे, ‘गया यात्रा सफल आमार।’अर्थात् मेरी गया यात्रा सफल हुई। सन् 1510 में संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से उन्होंने संन्यास की दीक्षा ली। उसके बाद से ही निमाई का नाम कृष्ण चैतन्य देव हो गया और बाद में पूर्णत: संन्यास धारण करने पर उन्हें चैतन्य महाप्रभु के नाम से जाना जाने लगा।  

चैतन्य महाप्रभु की भक्ति गाथाएं पूरे बंगाल में दूर-दूर तक सुनाई जाने लगीं। फिर वहीं कृष्ण भक्ति के प्रचार-प्रसार में लीन रहने के कुछ वर्ष पश्चात वे वृंदावन भी आए। उनके वृंदावन गमन से पहले तक इस श्रीधाम को लोग लगभग भुला ही चुके थे, किंतु चैतन्य महाप्रभु की भक्ति इस धाम को फिर से कृष्ण भक्तों के बीच ले आई  और इस धाम का महत्व पुन: लोगों के सामने आया। उल्लेख मिलता है कि उन्होंने अपने नवद्वीप से छह प्रमुख अनुयायियों को भेजकर वृंदावन में सप्तदेवालयों की आधारशिला रखवाई। अपने जीवन के अंतिम दिनों में महाप्रभु श्री जगन्नाथ पुरी में रहे। कहते हैं कि जगन्नाथपुरी में जब वे पहुंचे थे, तो प्रभु जगन्नाथ का विग्रह देख वह भावविभोर होकर नृत्य करने लगे थे। यहीं 14 जून 1533 में वह सदा-सर्वदा के लिए हरि तत्व में विलीन हो गए। 
चैतन्य महाप्रभु ने हरि भक्ति के सूत्र में पूरे भारत को पिरोया और दक्षिण भारत में भी इसका खूब प्रचार-प्रसार किया। उन्होंने समाज में जाति-भेद को दूर कर मानवीयता की भावना का प्रसार किया था।