रोजाइफ्तार वोटबैंक का जरिया ?

By Tatkaal Khabar / 19-06-2018 02:42:54 am | 9309 Views | 0 Comments
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हिन्दुओं में तो त्योहारों की भरमार रहती है तथा कहावत है कि हर दिन कोई न कोई छोटा-बड़ा त्योहार
हुआ करता है। गुरुपूर्णिमा से लेकर नवरात्रि-रामनवमी तक तो पर्वों एवं महापर्वों की झड़ी लगी रहती है।
‘दिन में होली, रात दिवाली’ वाला वातावरण रहता है। लेकिन मुस्लिमों में मात्र एक महापर्व ईद या ईद-
उल-फित्र हुआ करता है, जिसके साथ कुछ अरसे से हिन्दुओं की देखादेखी कतिपय अन्य पर्व भी मुस्लिमों
में धूमधाम से मनाए जाने लगे हैं। मगर ईद-उल-फित्र, जिसे आम बोलचाल में ‘मीठी ईद’ कहा जाता है,
लाजवाब महापर्व है। यह विशिष्टता उसे रमजान मास के साथ जुड़े होने के कारण मिली है। मुस्लिम
समाज में रमजान मास बड़ा पवित्र माना जाता है। मुझे याद है, इलाहाबाद में दाराशाह अजमल में रहने
वाले शाहिद फाखरी की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वह पूरे रमजान मास में अपने आवास की मस्जिद में
अपने को सीमित कर लेते थे तथा परवरदिगार की बंदगी में पूरा समय व्यतीत किया करते थे। महामना
मदन मोहन मालवीय उन्हें बहुत मानतेे थे तथा ईद पर शाहिद फाखरी के यहां मुबारकबाद देने जरूर
जाते थे। शाहिद फाखरी भी महामना मालवीय का इतना अधिक सम्मान करते थे कि उनके लिए बड़ी
पवित्रता से सेवइयां आदि बनवाते थे। उनकी रसोई मांसाहार से पूरी तरह दूर हो जाती थी। शाहिद फाखरी
के पुत्र जाहिद फाखरी प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में सूचना अधिकारी थे। मैं उस समय इलाहाबाद के
प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक ‘भारत’ में स्थानीय समाचार सम्पादक एवं मुख्य संवाददाता था तथा जाहिद फाखरी
नित्य ही मेरे पास आया करते थे। ईद पर उनके यहां की स्वादिष्ट सिवइयों आदि की याद अभी तक है।
उनकी पुत्री ने संस्कृत में उच्च शिक्षा प्राप्त की थी और इस समय वह निश्चित रूप से संस्कृत की
विशिष्ट विद्वान होगी।
रमजान का महीना दिनभर कठिन उपवास ;रोजा द्ध रहकर खुदा की बंदगी में गुजारने का नियम तो है
ही, व्यक्ति को इस महीने में किसी भी तरह के गुनाह से दूर रहकर अपने को पूरी तरह पाक रखना
चाहिए। झूठ बोलना या किसी को दुखी करना भी रमजान की पवित्र भावना के खिलाफ है। एक महीने
तक कठोर रोजा रखने के बाद रमजान का समापन ईद महापर्व के रूप में होता है। इसी से ईद का
त्योहार दुहरी खुशी का सबब बन जाता है और जबरदस्त उत्साह से मनाया जाता है। हालांकि रमजान
महीने में रोजाइफ्तार की पवित्र प्रथा को पिछले कुछ दशकों से राजनीतिज्ञों ने अपनी स्वार्थसिद्धि का
माध्यम बना लिया है और वह वोटबैंक साधने का जरिया बन गया है। कांग्रेस पार्टी ने यह विकृति पैदा

की और जब अन्य पार्टियों ने देखा कि इस उपाय से मुसलमानों को अपनी ओर साधा जा सकता है तो
उन लोगों ने भी कांग्रेस का अनुसरण शुरू कर दिया। धीरे-धीरे अफसरों ने भी अपने मंत्रियों व अन्य
नेताओं को खुश करने के लिए यह रास्ता अपना लिया तथा छोटे-छोटे दफ्तरों में भी रोजाइफ्तार
आयोजित किया जाने लगा। मुख्यमंत्री के रूप में अखिलेश यादव ने तो अपने सरकारी आवास पर
प्रतिवर्ष अथाह सरकारी धन खर्च कर बहुत विशाल पैमाने पर रोजाइफ्तार के आयोजन किए। मुझे एक
बार एक कोरियरवाले ने बहुत आग्रह कर अपने यहां आयोजित रोजाइफ्तार में बुलाया था। वहां मुझे
देखकर आश्चर्य हुआ कि उस रोजाइफ्तार में एक भी मुसलमान नहीं मौजूद था और जितने हिन्दू आए
थे, उनमें सभी ने दिन में नाश्ता-भोजन कर रखा था।
कांग्रेसी संस्कृति ने राष्ट्रपति भवन को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया था और वहां प्रतिवर्ष रोजाइफ्तार
आयोजित होने लगा था। जब डाॅ.अब्दुल कलाम राष्ट्रपति हुए तो उन्होंने रोजाइफ्तार की पवित्र भावना पर
हो रहे प्रहार को समझा और राष्ट्रपति भवन में रोजाइफ्तार का आयोजन करने से मना कर दिया।
उन्होंने कहा कि यह धनराशि गरीबों को देनी चाहिए। रोजाइफ्तार को राजनीतिज्ञों द्वारा जो विकृत किया
जा रहा था, उसे मुस्लिम धर्मगुरु कड़ाई से रोक सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया, बल्कि नेताओं
की रोजाइफ्तार पार्टियों में वे अपनी मौजूदगी करने लगे। उत्तर प्रदेश के अनेक मुख्यमंत्रियों द्वारा
सरकारी आवास 5 कालिदास मार्ग पर रोजाइफ्तार का आयोजन किया जाता था। मुख्यमंत्री के रूप में
राजनाथ सिंह भी दुपल्ली टोपी पहनकर एवं कंधे पर चारखानेदार अंगोछा ओढ़कर रोजाइफ्तार में बैठा
करते थे। मैंने एक बार मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से कहा था कि मुख्यमंत्री के सरकारी आवास पर
रोजाइफ्तार का आयोजन करने के बजाय उसे किसी घनी मुस्लिम आबादी के बीच आयोजित किया करें,
ताकि वहां के गरीब मुसलमान उसका लाभ उठा सकें। तमाम गरीब मुसलमानों के यहां तो रोजा खोलने
की पर्याप्त सुविधाएं भी नहीं होती हैं तथा उन लोगों के बीच रोजाइफ्तार की व्यवस्था होने से उसका
वास्तविक उद्देश्य पूरा होगा।
कभी-कभी एक चूक घातक सिद्ध होती है। यही लखनऊ में मनकामेश्वर मंदिर की महंत देव्यागिरि के
साथ हुआ। उन्होंने मंदिर में चढ़ावे से प्राप्त होने वाले धन से मंदिर-प्रांगण में रोजाइफ्तार भोज का
आयोजन कर दिया, जिसमें उन मजहबी ठेकेदारों की भी शिरकत हुई, जो अपने स्वार्थ में बड़ी-बड़ी जगहों
पर देखे जाते हैं। लेकिन महंत देव्यागिरि का यह रोजाइफ्तार उनके लिए बहुत अधिक नुकसानदेह सिद्ध
हुआ। अंग्रेजी के अखबारों एवं फर्जी सेकुलरी जमात ने उनकी भले ही तारीफ की हो, लेकिन महंत
देव्यागिरि की जो देशभर में भारी आलोचना व निंदा हुई, उससे उनके अब तक चले आ रहे निर्विवाद रूप
को भारी आघात पहुंचा। इसी प्रकार कुछ वर्ष पूर्व महंत ज्ञानदास ने अयोध्या में हनुमानगढ़ी मंदिर के
परिसर में रोजा इफ्तार का आयोजन किया था। जैसी कि उस समय महंत ज्ञानदास से मांग की गई थी,

इस समय महंत देव्यागिरि से मांग की जा रही है कि जिस प्रकार उन्होंने हिन्दू-मुसलमानों के बीच
भावात्मक एकता एवं आपसी भाईचारे को बढ़ावा देने के लिए मनकामेश्वर मंदिर में रोजाइफ्तार का
आयोजन किया, उसी प्रकार आगामी नवरात्रि में उन्हें शहर की जामा मस्जिद एवं बड़ी मस्जिदों में
नवरात्रि-भोज के आयोजन करने चाहिए। ताली दोनों ओर से बजनी चाहिए, एक ओर से नहीं।
रोजाइफ्तार के दुरुपयोग का इस्लाम-धर्मावलंबियों को कड़ाई से रोकना चाहिए। यह एक पवित्र प्रथा है,
जिसकोे राजनीतिक रूप दिया जाना बहुत आपत्तिजनक एवं निंदनीय है। मुस्लिम-धर्मावलंबियों को स्वयं
जागरूकता दिखाकर इस दिशा में कदम उठाना चाहिए। लोग स्वार्थ के रोजाइफ्तार पर जो भारी धनराशि
खर्च करते हैं, वह धनराशि गरीब मुसलमानों के कल्याण के लिए खर्च की जानी चाहिए।

SHAYAM KUMAR