Kalash Ritual: नई दुल्हन गृह प्रवेश के समय पैर से कलश क्यों ठेलती है? जानिए इस अनोखी परंपरा को

Kalash Ritual: नई दुल्हन जब गृह प्रवेश करती है और पैर से अनाज भरे कलश को ठेलती है, तो यह केवल एक रस्म नहीं, बल्कि एक शास्त्रसम्मत प्रतीक है, वह लक्ष्मी रूप में घर में समृद्धि, अन्न, सौभाग्य और अधिकार का प्रवेश कर रही होती है. यह क्रिया वैदिक परंपरा, सांस्कृतिक प्रतीक और मानसिक भावनाओं का सुंदर समन्वय है.
गृह प्रवेश में कलश से जुड़ी परंपरा, केवल रस्म नहीं, बल्कि लक्ष्मी के प्रवेश का सांकेतिक रूप
भारतीय संस्कृति में दुल्हन को 'गृहलक्ष्मी' माना जाता है. उसका घर में प्रवेश लक्ष्मी के आगमन की तरह माना जाता है. जब वह दाहिने पैर से चावल या गेहूं से भरे कलश को ठेलती है, तो यह संकेत होता है कि वह घर में सौभाग्य, अन्न और समृद्धि लेकर आ रही है.
श्लोक प्रमाण:
या देवी सर्वभूतेषु लक्ष्मी रूपेण संस्थिता.
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥
(अर्थ: वह देवी जो समस्त प्राणियों में लक्ष्मी रूप में स्थित हैं, उन्हें बारम्बार नमस्कार है.)
क्यों होता है कलश में अनाज भरकर रखा जाता?
कलश को ब्रह्मांड और पूर्णता का प्रतीक माना गया है.
अनाज को अन्नपूर्णा, जीवन-ऊर्जा और अक्षय धन का प्रतीक बताया गया है.
जब दुल्हन कलश को ठेलती है, तो वह इन समस्त सकारात्मक ऊर्जाओं को घर के भीतर प्रवाहित कर रही होती है. यही इस परंपरा का दर्शन और धार्मिक और पौराणिक महत्व है. साथ ङी यह एक संकेत है कि –
मैं इस घर को पोषण, सौभाग्य और नई ऊर्जा से भर दूंगी.
पैर से ठेलना , क्या यह अपशकुन नहीं?
नहीं! दुल्हन जब दाहिने पैर से कलश को ठेलती है, तो यह एक शुभ प्रवेश होता है. दाहिना पांव शुभता और मंगल कार्यों में पहले रखा जाता है. यह अधिकार, श्रद्धा और सौम्यता का प्रतीक है , वह अब केवल मेहमान नहीं, घर की स्वामिनी है.
गृह प्रवेश और लक्ष्मी के पांव के निशान
दुल्हन के पांव में जब गेरू या हल्दी मिले जल से रंग होता है और वो आंगन में प्रवेश करती है, तो उसके पदचिन्ह लक्ष्मी के आगमन के रूप में देखे जाते हैं. जो पैर के निशान और कलश का ठोकर...यह मिलकर गृहप्रवेश की परंपरा को पूर्ण करते हैं.
मनोवैज्ञानिक और सामाजिक संदेश
यह परंपरा नई दुल्हन को सहज बनाने और यह बोध कराने का तरीका है कि यह अब उसका अपना घर है. कलश को ठेलना एक सम्मानजनक प्रवेश-अधिकार का प्रतीक है.
क्या यह वैदिक परंपरा है? ग्रंथों के प्रमाण से भी जानते हैं
मनुस्मृति, गृह्यसूत्र, वराहमिहिर का बृहत्संहिता जैसे ग्रंथों में गृहप्रवेश, लक्ष्मी, कलश और पगचिन्ह की परंपराओं का उल्लेख है. पौराणिक ग्रंथ में श्लोक मिलता है... गृह प्रवेशे लक्ष्मीं पश्येत् कलशं धान्यसंयुतम्, गृह प्रवेश के समय अन्नपूर्ण कलश और लक्ष्मी का दर्शन करना शुभ माना गया है.
आधुनिकता बनाम परंपरा , क्या यह प्रासंगिक है?
यह परंपरा अंधविश्वास नहीं, सांस्कृतिक मनोविज्ञान है. यह हमारे घरों में नारी की भूमिका, सौभाग्य और समर्पण के साथ अधिकार की स्वीकृति को दर्शाती है. इसलिए आज भी यह परंपरा सामाजिक भावनाओं को जोड़ने वाली रस्म है, न कि रूढ़ि मात्र.
नई दुल्हन जब गृह प्रवेश के समय अनाज से भरे कलश को पैर से ठेलती है, तो वह एक पूरी सांस्कृतिक प्रणाली को जीवंत करती है-
वह लक्ष्मी है
वह अन्नपूर्णा है
वह समृद्धि का प्रवेश द्वार है
और सबसे बढ़कर, वह अब इस कुल की धुरी है. यह केवल कलश को ठेलना नहीं, नवजीवन, सौभाग्य और अधिकार को परिवार में प्रविष्ट कराने का पवित्र कार्य है.