गोल्ड : फिल्म समीक्षा

By Tatkaal Khabar / 24-08-2018 07:34:57 am | 13825 Views | 0 Comments
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रीमा कागती द्वारा निर्देशित फिल्म 'गोल्ड' में आधी हकीकत और आधा फसाना को दर्शाया गया है। राजेश देवराज और रीमा ने मिलकर ऐसी कहानी लिखी है जिसमें खेल है, देश प्रेम है और अपने सपने को पूरा करने की जिद है। इस तरह की फिल्में इस समय खासी धूम मचा रही हैं और इन्हीं बातों का समावेश कर शायद 
एक हिट फिल्म रचने की कोशिश की गई है।

फिल्म शुरू होती है 1936 के बर्लिन ओलिंपिक से जब ब्रिटिश इंडिया हॉकी टीम फाइनल में थी और उसका मुकाबला जर्मनी की टीम से था। तानाशाह हिटलर की उपस्थिति में ब्रिटिश इंडिया टीम 8-1 से मैच जीत जाती है। तपन इस टीम से बतौर मैनेजर जुड़ा हुआ रहता है। उसके सहित भारतीय खिलाड़ियों को तब दु:ख होता है जब उनकी जीत के बाद यूनियन जैक ऊपर जाता है और ब्रिटेन का राष्ट्रीय गीत बजता है।

तब तपन सपना देखता है कि एक दिन तिरंगा ऊपर जाएगा और 'जन गण मन' सुनने को मिलेगा। उसका सपना 1948 में लंदन ओलिंपिक में पूरा होता है। इस 12 साल के उसके संघर्ष को फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरह से वह हॉकी टीम बनाता है और तमाम मुश्किलों का सामना करता है।

फिल्म की कहानी बुनियाद थोड़ी कमजोर है। यह 1936 में जीते स्वर्ण पदक की महत्ता को कम करती है। ठीक है उस समय हमारा देश गुलाम था और टीम को ब्रिटिश इंडिया कहा गया था, लेकिन उसमें खेलने वाले अधिकतर खिलाड़ी भारतीय थे और उन्होंने टीम को गोल्ड मैडल दिलाया था। 1948 का स्वर्ण पदक इसलिए खास बन गया क्योंकि यह आजाद भारत का पहला गोल्ड मैडल था, लेकिन इससे 1936 की जीत की चमक फीकी नहीं पड़ जाती।

दूसरी कमी यह लगती है कि सपना देखने वाला जो कि फिल्म का लीड कैरेक्टर है, कोच या खिलाड़ी न होकर एक मैनेजरनुमा व्यक्ति है, जो शराब पीकर सपने देखा करता है। उसके योगदान को लेखकों ने बहुत गहराई नहीं दी गई है जिससे फिल्म का असर कम हो जाता है।

वह अपनी पत्नी मोनोबिना (मौनी रॉय) के गहने गिरवी रख खिलाड़ियों का खर्चा उठाता है और उन्हें इकट्ठा करता है, लेकिन खेल में कोई योगदान नहीं देता। उसके सपने को फिल्म में बार-बार जोर देकर बताया गया है कि यह बहुत बड़ा सपना था जो पूरा हुआ। यह 'कोशिश' कई बार फिल्म देखते समय अखरती है।

तपन के सामने जो मुश्किलें खड़ी की गई हैं वो भी बनावटी लगती है। जैसे फंड की कमी को लेकर तपन-वाडिया और मेहता के बीच का एक प्रसंग डाला गया है वो महज फिल्म की लंबाई को बढ़ाता है।
कहानी की इन मूल कमियों पर कम ध्यान इसलिए जाता है कि फिल्म में मनोरंजन का खासा ध्यान रखा गया है। प्रताप सिंह (अमित साध) और हिम्मत सिंह (सनी कौशल) के किरदार बड़े मजेदार हैं।