स्वच्छ बिजली और ग्रीन स्टील अपनाने पर भारत के ऑटो उद्योग का उत्सर्जन 87% तक घट सकता है: सीईईडब्ल्यू

नई दिल्ली, 23 जुलाई 2025: भारत का ऑटोमोबाइल उद्योग - जो विश्व में तीसरा सबसे बड़ा है - स्वच्छ बिजली और कम कार्बन उत्सर्जन वाले स्टील का इस्तेमाल करके 2050 तक अपने उत्पादन उत्सर्जन को 87 प्रतिशत तक कमी ला सकता है। यह महत्वपूर्ण जानकारी काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्ल्यू) की ओर से आज जारी हुए एक नए स्वतंत्र अध्ययन *‘हाउ कैन इंडियाज ऑटोमोबाइल मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर गो नेट जीरो? एक्सप्लोरिंग डीकार्बोनाइजेशन पाथवेज’* से सामने आई है। सीईईडब्ल्यू का यह अध्ययन ऐसे समय में आया है, जब महिंद्रा एंड महिंद्रा, टाटा मोटर्स, टीवीएस मोटर्स, फोर्ड, बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज-बेंज और टोयोटा जैसे कई प्रमुख ऑटो निर्माताओं ने बीते दो वर्षों में इलेक्ट्रिक और हाइब्रिड वाहनों का अपना उत्पादन बढ़ाया है और इसके साथ उत्सर्जन कटौती के महत्वाकांक्षी लक्ष्य भी तय कर रहे हैं। इन ऑटो निर्माताओं ने नेट-जीरो की वैश्विक परिभाषाओं के अनुरूप साइंस-बेस्ड टारगेट्स इनिशिएटिव (एसबीटीआई) के प्रति भी अपनी प्रतिबद्धता जताई है, जिसके लिए 2050 तक सभी वैल्यू चेन को डीकार्बोनाइज करने की जरूरत है। भारत के प्रमुख ऑटो निर्माताओं के लिए, सप्लाई चेन को स्वच्छ बनाने से न केवल उत्सर्जन घटेगा; बल्कि उनकी दीर्घकालिक लागत प्रतिस्पर्धात्मकता (long-term cost competitiveness) भी बढ़ेगी और वे पसंदीदा अंतरराष्ट्रीय आपूर्तिकर्ता के रूप में स्थापित हो पाएंगे। इनमें से कई लक्ष्य प्रत्यक्ष फैक्ट्री उत्सर्जन (स्कोप -1 और 2) और डाउनस्ट्रीम यूज-फेज (उत्पादन के बाद उपयोग-चरण) के उत्सर्जन पर ही ध्यान केंद्रित करते हैं, लेकिन अपस्ट्रीम सप्लाई चेन (उत्पादन से पहले की आपूर्ति श्रृंखला) के उत्सर्जन पर अधिक ध्यान नहीं देते हैं, जबकि इनकी इस क्षेत्र के कार्बन फुट प्रिंट में बड़ी हिस्सेदारी है। सीईईडब्ल्यू का अध्ययन तीन दायरों (स्कोप) में उत्सर्जन का आकलन करता है: वाहन विनिर्माण से होने वाला प्रत्यक्ष उत्सर्जन (स्कोप-1), बिजली उपयोग से होने वाला अप्रत्यक्ष उत्सर्जन (स्कोप-2), और अप-स्ट्रीम सप्लाई चेन का उत्सर्जन (स्कोप-3)। भारतीय ऑटो उद्योग के उत्सर्जन में स्कोप-3 के उत्सर्जन का हिस्सा अभी 83 प्रतिशत से अधिक है, जिसका मुख्य कारण वाहन विनिर्माण में कोयला आधारित स्टील और रबर का इस्तेमाल है। *डॉ. अरुणभा घोष, सीईओ, सीईईडब्ल्यू,* ने कहा, “भारत का ऑटो उद्योग एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा है। कम कार्बन उत्सर्जन वाली वैश्विक अर्थव्यवस्था में अग्रणी बने रहने के लिए, हमें न केवल उन वाहनों को, जिन्हें हम चलाते हैं, बल्कि उन्हें बनाने वाली औद्योगिक प्रक्रियाओं को भी डीकार्बोनाइज करना होगा। ऑटो निर्माताओं को अपने उत्पादन को स्वच्छ बनाने के लिए यह देखना होगा कि उनके वाहन कैसे बनते हैं, किससे उनकी फैक्ट्रियां चलती हैं, और उनके आपूर्तिकर्ता स्टील व रबर जैसी प्रमुख सामग्रियों को कैसे बनाते हैं। यह नया नहीं है, बल्कि अच्छी बात यह है कि भारत में अधिकांश प्रमुख वाहन निर्माता पहले से ही इन बदलावों के बारे में विचार कर रहे हैं। अब ग्रीन मटेरियल (कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्रक्रिया से निर्मित सामग्री) की मांग बढ़ाने, लागत घटाने और स्वच्छ तकनीकों के इस्तेमाल में तेजी लाने पर ध्यान देना चाहिए। ऑटो सेक्टर पूरी अर्थव्यवस्था में नेट-जीरो परिवर्तन को लाने का एक सशक्त माध्यम बन सकता है, जो केवल सामूहिक दूरदर्शिता, निवेश और नवाचार से संभव है।” *उत्सर्जन तीव्रता घट रही है - लेकिन पर्याप्त तेजी से नहीं* सीईईडब्ल्यू अध्ययन में भारत के वाहन विनिर्माण क्षेत्र के उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए ग्लोबल चेंज एनालिसिस मॉडल के एक विशेष संस्करण का उपयोग किया गया है। इसके अनुसार, सामान्य परिस्थिति (बिजनेस एज यूजुअल) के साथ अगर मौजूदा रुझान आगे भी जारी रहता है तो वार्षिक वाहन उत्पादन लगभग चार गुना बढ़ सकता है - 2020 में 2.5 करोड़ यूनिट से बढ़कर 2050 में 9.6 करोड़ यूनिट। हालांकि, उत्सर्जन केवल दोगुना बढ़कर 6.4 करोड़ टन कार्बन डाई ऑक्साइड तक पहुंचेगा, जो कि प्रति वाहन उत्सर्जन में लगातार गिरावट आने का संकेत देता है। फिर भी, उत्सर्जन में निरपेक्ष वृद्धि (absolute rise) त्वरित कार्रवाई की जरूरत रेखांकित करती है। केवल स्टील ही आपूर्ति श्रृंखला के उत्सर्जन का सबसे बड़ा स्रोत बना रहेगा, क्योंकि सामान्य परिस्थिति परिदृश्य में आपूर्तिकर्ताओं की कोयले पर अत्यधिक निर्भरता बनी रहने की उम्मीद है। अध्ययन का आकलन है कि कम कार्बन उत्सर्जन वाले स्टील का उपयोग करके 2050 तक लगभग 3.8 करोड़ टन उत्सर्जन घटाया जा सकता है। *डीप डीकार्बोनाइजेशन के लिए स्वच्छ ऊर्जा और ग्रीन स्टील अत्यधिक जरूरी* यदि मूल उपकरण निर्माता (ओईएम) और उनके आपूर्तिकर्ता दोनों ही 2050 तक नेट-जीरो को पाने का लक्ष्य रखें, तो अनुमानित वार्षिक उत्सर्जन सामान्य परिस्थिति के 64 मीट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड की तुलना में घटकर सिर्फ 9 मीट्रिक टन कार्बन डाई ऑक्साइड हो सकता है, यानी लगभग 87 प्रतिशत की गिरावट। इसके लिए ओईएम को बिजली खरीद समझौतों (PPAs), अक्षय ऊर्जा प्रमाणपत्रों (RECs), या कैप्टिव सोलर (captive solar) के जरिए मिलने वाली 100 प्रतिशत स्वच्छ बिजली का इस्तेमाल करना होगा और स्टील आपूर्तिकर्ताओं को 56 प्रतिशत हाइड्रोजन-आधारित ऊर्जा का उपयोग करना होगा, जिससे कोयले की हिस्सेदारी घटकर 10 प्रतिशत के नीचे आ जाएगी। इसके अलावा, 2050 तक स्क्रैप-आधारित इस्पात उत्पादन को 48 प्रतिशत तक बढ़ाने पर उत्सर्जन व संसाधन अधिकता (intensity) में काफी कमी आएगी। सीईईडब्ल्यू अध्ययन बताता है कि रबर आपूर्तिकर्ताओं को स्कोप-2 उत्सर्जन को दूर करने के लिए स्वच्छ बिजली को निश्चित तौर पर अपनाना चाहिए। *डॉ. वैभव चतुर्वेदी, सीनियर फेलो, सीईईडब्ल्यू* ने कहा, “भारत के ऑटोमोबाइल क्षेत्र - सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी), नौकरियों और औद्योगिक विकास के लिए अति-महत्वपूर्ण- को नेट-जीरो भविष्य के अनुरूप बनाने के लिए, हमें वाहनों के इलेक्ट्रिफिकेशन से आगे जाना होगा। हमें विनिर्माण को डीकार्बोनाइज करना होगा। अग्रणी बने रहने के लिए कई प्रमुख ओईएम पहले से अपने संचालन और आपूर्ति श्रृंखलाओं को डीकार्बोनाइज करने के फैसले कर रहे हैं। अब जिसकी जरूरत है, वह है खरीद करने की एक मजबूत इच्छाशक्ति की, खासकर उन्नत बाजार प्रतिबद्धताओं के माध्यम से ग्रीन स्टील और अन्य कम कार्बन उत्सर्जन प्रक्रिया से तैयार सामग्रियों के लिए। नीतिगत परिदृश्य में भले ही बदलाव हो रहा हो, लेकिन प्रमुख बाजार अभी भी कॉर्पोरेट और निवेशक कदमों से हरित बनने पर जोर दे रहे हैं। भारतीय ऑटो निर्माताओं को न केवल लागत नियंत्रित करने, बल्कि वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में प्रतिस्पर्धी बने रहने के लिए स्वच्छ विनिर्माण को एक रणनीतिक उपकरण के रूप में स्वीकार करना चाहिए।” सीईईडब्ल्यू का अध्ययन एक हाई-हाइब्रिड परिदृश्य की भी जांच करता है, जिसमें निकट भविष्य में इलेक्ट्रिक व्हीकल (ईवी) के लोकप्रिय होने से पहले हाइब्रिड गाड़ियां हावी रहेंगी। यह कंपोनेंट सप्लायर्स के बीच ऊर्जा की मांग को 7 प्रतिशत तक घटाता है, लेकिन दहन इंजन (combustion engine) पर निर्भरता बनी रहने के कारण उत्सर्जन ईवी की दिशा में सामान्य परिस्थिति के परिवर्तन की तुलना में थोड़ा ऊंचा बना रहता है। कुल मिलाकर हाइब्रिड गाड़ियां सिर्फ एक पुल की तरह हैं और जीरो-कार्बन वाले वाहनों के लिए रास्ता बनाने के लिए इन्हें घटाने की जरूरत होगी। ऑटोमोबाइल क्षेत्र को 2050 तक नेट-जीरो लक्ष्य के अनुरूप बनाने के लिए, सीईईडब्ल्यू का अध्ययन दोहरी रणनीति को अपनाने का सुझाव देता है: इलेक्ट्रिक वाहनों की दिशा में बदलाव (ट्रांजिशन) को तेज करना, और संपूर्ण विनिर्माण मूल्य श्रृंखला (manufacturing value chain) को डीकार्बोनाइज करना। चूंकि किसी वाहन के संपूर्ण जीवनकाल के कुल उत्सर्जन का 65-80 प्रतिशत हिस्सा इसके उपयोग के चरण (use phase) से आता है, इसलिए ईवी की दिशा में बदलाव अंतिम उपयोग के स्तर पर उत्सर्जन को घटाने का सबसे प्रभावी तरीका है। लेकिन उत्सर्जन में व्यापक कटौती तभी संभव होगी, जब ईवी को स्वच्छ ऊर्जा और कम कार्बन उत्सर्जन प्रक्रिया से निर्मित ग्रीन मेटीरियल का उपयोग करके बनाया जाए। इसके लिए ओईएम (OEM) और आपूर्तिकर्ताओं के बीच समन्वित प्रयासों की जरूरत है, जिसे दीर्घकालिक खरीद प्रतिबद्धताओं और निवेश को प्रोत्साहित करने वाले नीतिगत संकेतों का समर्थन होना चाहिए। *Read the full study*: https://www.ceew.in/publications/net-zero-strategy-for-low-carbon-automobile-sector-and-transport-decarbonisation *Limitations:* Material demand remains proportional to vehicle production in this analysis, as it does not account for the use of lightweight materials or scenarios where steel requirements per vehicle decrease, which could be considered as future work. This analysis only focuses on manufacturing and upstream suppliers. Downstream emissions were not considered here. For media queries and interviews, contact: Rishi Singh - +91 9313129941 | rishi.singh@ceew.in | Tulshe Agnihotri – tulshe.agnihotri@ceew.in