बुआ और बबुआ कांग्रेस से नहीं करेंगे गठबंधन अखिलेश पर भारी न पड़े माया का साया
अखिलेश यादव यह भूल रहे हें कि माया को बार बार समर्थन करने के कारण उत्तर प्रदेश में भाजपा समाप्ति की कगार पर पहुंच गई थी, जिसे कल्याण सिंह मरा हुआ सांप कहने लगते थे। अब मायावती का पिछलग्गू बन अखिलेश यादव समाजवादी पार्टी की समाप्ति का रास्ता प्रशस्त कर रहे हैं। समाजवादी पार्टी को होना होगा, सो तो होगा ही, मायावती ज्यादा से ज्यादा सीटों पर लड़ने के लिए आगामी लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं होने देंगे और इस तरह देश की सबसे बड़ी आबादी वाले राज्य में तथाकथित महागठबंधन शायद बन ही नहीं सके, जिसेउत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बसपा से ज्यादा ताकतवर है। विधानसभा में जहां बसपा को मात्र 19 विधायक है, वहीं सपा के पास 47 विधायक हैं। लोकसभा में इस समय सपा के पास 7 सांसद हैं, जबकि मायावती के पास एक भी सांसद नहीं हैं।
भाजपा को हराने के लिए आवश्यक माना जा रहा है।
अब इसकी संभावना बहुत बढ़ गई है कि उत्तर प्रदेश के सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं किया जाएगा। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के शपथग्रहण समारोह में न जाकर मायावती और अखिलेश ने स्पष्ट कर दिया है कि वे कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहते हैं।
मध्यप्रदेश में बिना मांगे कांग्रेस सरकार का समर्थन करने वाले सपा-बसपा नेता द्वारा अपनी ही समर्थित मध्यप्रदेश सरकार के शपथग्रहण समारोह में नहीं जाना विशेष राजनैतिक महत्व रखता है।
दूसरी तरफ राजस्थान सरकार के शपथग्रहण समारोह में राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी का नहीं जाना भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को महागठबंधन से दूर रखने के ही संकेत हैं। राजस्थान में तो राष्ट्रीय लोकदल का कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन ही था।
दल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर दो सीटों पर चुनाव लड़ रहा था और उसका एक उम्मीदवार जीता भी। कांग्रेस को अपने चुनाव चिन्ह पर 199 में से सिर्फ 99 सीटों पर ही जीत हासिल हुई है। बहुमत का आंकड़ा उसने राष्ट्रीय लोकदल के एक उम्मीदवार की जीत के साथ छुआ था।
दिलचस्प बात तो यह है कि रालोद नेता जयंत चौधरी ने राजस्थान सरकार के शपथग्रहण में जाने के लिए हवाई जहाज का टिकट भी जयपुर के लिए कटा रखा था। लेकिन उन्होंने ऐन वक्त पर बीमारी का बहाना करते हुए अपनी जयपुर यात्रा कैंसिल कर दी।
जाहिर है, उन्होंने ऐसा माया और अखिलेश के कहने पर या उनको भोपाल न जाता देख किया। जयंत चौधरी द्वारा टिकट कटाकर भी भोपाल न जाना इस बात के स्पष्ट संकेत है कि कांग्रेस को मायावती के नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ बने गठबंधन से बाहर रखे जाने की पूरी तैयारी है।
यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि अखिलेश यादव ने मायावती के सामने पूरा सरेंडर कर रखा है। वे मायावती की शर्तो पर बिना विचार किए हुए राजी हो रहे हैं। जब बसपा ने तीनों राज्यों में कांग्रेस सरकार से गठबंधन नहीं किया, तो अखिलेश ने भी नहीं किया।
मध्यप्रदेश में मायावती ने जब अपने दो विधायकों द्वारा कांग्रेस सरकार के गठन के समर्थन की घोषणा की तो अखिलेश ने भी अपने एकमात्र उम्मीदवार का समर्थन कांग्रेस को देने की घोषणा कर दी। ये दोनों घोषणाएं एकतरफा और बिना किसी शर्त की थी।
लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों ने सपा और बसपा द्वारा मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार के समर्थन की घोषणा को उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की दिशा में एक कदम बता दिया। वह विश्लेषण गलत था।
मायावती के पास कांग्रेस सरकार के गठन को समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। उन्हें मुस्लिम मतदाताओं का ख्याल रखना होता है और उन्हें पता है कि यदि बसपा की कांग्रेस विरोधी राजनीति के कारण मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बन जाती, तो उसके लिए मायावती को उत्तर प्रदेश मुसलमान जिम्मेदार मानते और फिर माया तब किस मुंह से मुसलमानों का वोट मांगती।
जाहिर है, माया और बाद में अखिलेश द्वारा मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार के गठन के समर्थन की घोषणा उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए की गई थी न कि कांग्रेस को खुश करने के लिए।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बसपा से ज्यादा ताकतवर है। विधानसभा में जहां बसपा को मात्र 19 विधायक है, वहीं सपा के पास 47 विधायक हैं। लोकसभा में इस समय सपा के पास 7 सांसद हैं, जबकि मायावती के पास एक भी सांसद नहीं हैं।
भले मायावती अपनी जाति के लोगों के बल पर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी सभा आयोजित कर लें, लेकिन सच्चाई यह है कि अकेले अपनी पार्टी के बूते वह उत्तर प्रदेश में किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर सांसद भी नहीं बन सकतीं। अपनी जाति के बाहर उनकी स्वीकार्यता लगभग शून्य है।
दूसरी ओर अपने सबसे खराब समय में भी समाजवादी पार्टी के 5 लोकसभा सांसद 2014 में चुनाव जीतकर आए थे। दो अन्य उपचुनाव में जीतकर आए हैं।
इसके बावजूद अखिलेश यादव हीनभावना के शिकार हैं और उन्हें लगता है कि मायावती के सहारे ही वह उत्तर प्रदेश में अगली बार मुख्यमंत्री बन सकते हें।
इसके कारण वे पूरी तरह मायावती के सामने सरेंडर कर चुके हैं। जाटव नेता कहती हैं कि वह सम्मानजनक सीट मिलने पर ही गठबंधन करेंगी, तो यादव नेता कहते हैं कि गठबंधन के लिए वह अपनी सीटें कुर्बान करने को तैयार हैं।इसका फायदा मायावती उठा रही हैं।
अब इसकी संभावना बहुत बढ़ गई है कि उत्तर प्रदेश के सपा-बसपा गठबंधन में कांग्रेस को शामिल नहीं किया जाएगा। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के शपथग्रहण समारोह में न जाकर मायावती और अखिलेश ने स्पष्ट कर दिया है कि वे कांग्रेस से दूरी बनाए रखना चाहते हैं।
मध्यप्रदेश में बिना मांगे कांग्रेस सरकार का समर्थन करने वाले सपा-बसपा नेता द्वारा अपनी ही समर्थित मध्यप्रदेश सरकार के शपथग्रहण समारोह में नहीं जाना विशेष राजनैतिक महत्व रखता है।
दूसरी तरफ राजस्थान सरकार के शपथग्रहण समारोह में राष्ट्रीय लोकदल के नेता जयंत चौधरी का नहीं जाना भी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को महागठबंधन से दूर रखने के ही संकेत हैं। राजस्थान में तो राष्ट्रीय लोकदल का कांग्रेस के साथ चुनावी गठबंधन ही था।
दल कांग्रेस के साथ गठबंधन कर दो सीटों पर चुनाव लड़ रहा था और उसका एक उम्मीदवार जीता भी। कांग्रेस को अपने चुनाव चिन्ह पर 199 में से सिर्फ 99 सीटों पर ही जीत हासिल हुई है। बहुमत का आंकड़ा उसने राष्ट्रीय लोकदल के एक उम्मीदवार की जीत के साथ छुआ था।
दिलचस्प बात तो यह है कि रालोद नेता जयंत चौधरी ने राजस्थान सरकार के शपथग्रहण में जाने के लिए हवाई जहाज का टिकट भी जयपुर के लिए कटा रखा था। लेकिन उन्होंने ऐन वक्त पर बीमारी का बहाना करते हुए अपनी जयपुर यात्रा कैंसिल कर दी।
जाहिर है, उन्होंने ऐसा माया और अखिलेश के कहने पर या उनको भोपाल न जाता देख किया। जयंत चौधरी द्वारा टिकट कटाकर भी भोपाल न जाना इस बात के स्पष्ट संकेत है कि कांग्रेस को मायावती के नेतृत्व में भाजपा के खिलाफ बने गठबंधन से बाहर रखे जाने की पूरी तैयारी है।
यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि अखिलेश यादव ने मायावती के सामने पूरा सरेंडर कर रखा है। वे मायावती की शर्तो पर बिना विचार किए हुए राजी हो रहे हैं। जब बसपा ने तीनों राज्यों में कांग्रेस सरकार से गठबंधन नहीं किया, तो अखिलेश ने भी नहीं किया।
मध्यप्रदेश में मायावती ने जब अपने दो विधायकों द्वारा कांग्रेस सरकार के गठन के समर्थन की घोषणा की तो अखिलेश ने भी अपने एकमात्र उम्मीदवार का समर्थन कांग्रेस को देने की घोषणा कर दी। ये दोनों घोषणाएं एकतरफा और बिना किसी शर्त की थी।
लेकिन राजनैतिक विश्लेषकों ने सपा और बसपा द्वारा मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार के समर्थन की घोषणा को उत्तर प्रदेश में महागठबंधन की दिशा में एक कदम बता दिया। वह विश्लेषण गलत था।
मायावती के पास कांग्रेस सरकार के गठन को समर्थन करने के अलावा कोई विकल्प ही नहीं था। उन्हें मुस्लिम मतदाताओं का ख्याल रखना होता है और उन्हें पता है कि यदि बसपा की कांग्रेस विरोधी राजनीति के कारण मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बन जाती, तो उसके लिए मायावती को उत्तर प्रदेश मुसलमान जिम्मेदार मानते और फिर माया तब किस मुंह से मुसलमानों का वोट मांगती।
जाहिर है, माया और बाद में अखिलेश द्वारा मध्यप्रदेश में कांग्रेस सरकार के गठन के समर्थन की घोषणा उत्तर प्रदेश में मुस्लिम समुदाय को खुश करने के लिए की गई थी न कि कांग्रेस को खुश करने के लिए।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी बसपा से ज्यादा ताकतवर है। विधानसभा में जहां बसपा को मात्र 19 विधायक है, वहीं सपा के पास 47 विधायक हैं। लोकसभा में इस समय सपा के पास 7 सांसद हैं, जबकि मायावती के पास एक भी सांसद नहीं हैं।
भले मायावती अपनी जाति के लोगों के बल पर उत्तर प्रदेश में सबसे बड़ी सभा आयोजित कर लें, लेकिन सच्चाई यह है कि अकेले अपनी पार्टी के बूते वह उत्तर प्रदेश में किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव जीतकर सांसद भी नहीं बन सकतीं। अपनी जाति के बाहर उनकी स्वीकार्यता लगभग शून्य है।
दूसरी ओर अपने सबसे खराब समय में भी समाजवादी पार्टी के 5 लोकसभा सांसद 2014 में चुनाव जीतकर आए थे। दो अन्य उपचुनाव में जीतकर आए हैं।
इसके बावजूद अखिलेश यादव हीनभावना के शिकार हैं और उन्हें लगता है कि मायावती के सहारे ही वह उत्तर प्रदेश में अगली बार मुख्यमंत्री बन सकते हें।
इसके कारण वे पूरी तरह मायावती के सामने सरेंडर कर चुके हैं। जाटव नेता कहती हैं कि वह सम्मानजनक सीट मिलने पर ही गठबंधन करेंगी, तो यादव नेता कहते हैं कि गठबंधन के लिए वह अपनी सीटें कुर्बान करने को तैयार हैं।इसका फायदा मायावती उठा रही हैं।