जानें क्यों? मोक्षदायिनी है काशी विश्वनाथ मंदिर और काशी के 6 शिवालय...
कई हजार साल से वाराणसी में अवस्थित काशी विश्वनाथ मंदिर बारह ज्योतिर्लिंगों में एक है। काशी खण्ड पुस्तक में स्पष्ट वर्णित है कि जीवनपर्यन्त समस्त शिवलिंगों की आराधना से जो पुण्य मिलना कठिन है, वह पुण्य श्रद्धापूर्वक केवल एक ही बार विश्वेश्वर के पूजन से शीघ्र मिल जाता है। इसके स्पर्श मात्र से राजसूय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इसके दर्शन मात्र से तत्वज्ञान का प्रकाश होता है। काशी खण्ड में वर्णित है कि काशी में एक तिल भूमि भी लिंग से रहित नहीं है। काशी खण्ड के त्रिस्थली सेतु के अनुसार विश्वेश्वर के दर्शन के बाद प्राणी कहीं भी शरीर छोड़े तो अगले जन्म में मोक्ष का भागी हो जाता है।
मान्यता है कि एक बार इस मंदिर के दर्शन करने और पवित्र गंगा में स्नान कर लेने से मोक्ष की प्राप्ति होती है। आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, मर्हिष दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास आदि समयाकाल के दिग्गजों ने बाबा धाम में शीश नवाया है। यही पर सन्त एकनाथजीने वारकरी सम्प्रदाय का ग्रन्थ श्रीएकनाथी भागवत को पूर्णतया दी थी। काशिनरेश तथा विद्वतजनों ने इस ग्रंथ की भव्य शोभायात्रा निकाली थी।
सर्वतीर्थमयी एवं सर्वसंतापहारिणी मोक्षदायिनी काशी की महिमा ऐसी है कि यहां प्राणत्याग करने से ही मुक्ति मिल जाती है। भगवान भोलेनाथ मरते हुए प्राणी के कान में तारक-मंत्र का उपदेश देते हैं जिससे वह आवागमन से छुट जाता है, चाहे मृत-प्राणी कोई भी क्यों न हो। मतस्यपुराण का मत है कि जप, ध्यान व ज्ञान से रहित एवं दु:खीजन, पीडि़तजनों के लिए काशीपुरी ही एकमात्र गति है।
काशी के पांच मुख्य तीर्थ
विश्वेश्वर के आनंद-कानन में दशाश्वमेध घाट, लोलार्ककुण्ड (भदैनी), बिन्दुमाधव आदि केशव व मणिकर्णिका। मान्यता यह भी है कि शिवशंकर ने जब काशी में ही रहने, धुनी रमाने का मन बनाया तो समस्त देवी-देवताओं भी इसी नगरी में आकर बस गए। यही वजह है कि सृष्टि के समस्त देवी-देवता यहां किसी-न-किसी रूप में विद्यमान हैं।
महारानी ने संवारा है मंदिर
वर्तमान में मौजूद काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने सन् 1780 में कराया था। बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने सन् 1853 में करीब 1000 किलोग्राम शुद्ध सोने से मंदिर के गुंबज का निर्माण कराया।
आरती समय
मंगला आरती - समय भोर में 2.35 बजे
भोग आरती- दोपहर 11.30 बजे
सप्तर्षि आरती - शाम को 7.15 बजे
शृंगार भोग आरती- रात 8.45 बजे
शयन आरती - रात 11 बजे
सारा संसार शिव सत्यात्मक : डॉ. श्रीकांत मिश्र
काशी विश्वनाथ मंदिर के अर्चक डॉ. श्रीकांत मिश्र ने बताया कि सारा संसार शिव सत्यात्मक है। यही वजह है कि किसी भी देवी या देवता की आरती मे कर्पूर गौरम... प्रार्थना पढ़ी जाती है। आरती का तत्पर्य यह है कि हम उसमें व्याप्त हो जाए और वो हममें व्याप्त हो जाए। भगवान और भक्त के बीच किसी प्रकार का अवरोध न रहे।शास्त्रीय पद्धति पर आधारित है
बाबा की आरती-शृंगार
बाबा विश्वनाथ का पूजन, अर्चन, शृंगार शैली अन्त्यंत ही मोहक व शास्त्रीय पद्धति पर आधारित है। पांच आरती होती है। प्रत्येक आरती में षोडशोपचार विधि से पूजन-अर्चन होता है। सबसे पहले मंगला आरती होती है। मान्यता है कि ब्रह्मबेला में स्वयं बाबा आरती ग्रहण करने आते हैं।
बाबा का स्नान
शृंगार के पूर्व दूध, दही, घृत, मधु, शर्करा से स्नान के बाद पंचामृत स्नान। फलोदक (नारियल) जल, गधोदक (गुलाब जल) फिर अंत में गंगा जल से स्नान। फिर वस्त्र, उपवस्त्र, यज्ञोपवित, रुद्राक्ष माला, सुगंधित द्रव्य, चंदन, भस्म, अक्षत, बिल्वपत्र के बाद राज राजेश्वर रूप में शृंगार होता है। इसके बाद नैवेद्य अर्पण। इसके बाद धूप, दीप और अंत में कर्पूर आरती होती है। इसके बाद पुष्पांजलि व अंत में स्तुति पाठ।
क्या लगता है भोग
मंगला आरती में बाबा को फल, मिठाई, मेवा का ही भोग लगता है। अन्न का भोग नहीं लगाया जाता है। मध्याह्न में चावल, दाल, रोटी व सब्जी का भोग। सोमवार को पक्का भोजन। इसमें तहत पूड़ी-सब्जी। एकादशी को फलहार का ही भोग लगता है। इसमें मुख्य रूप से सेंधा नमकयुक्त सिंघाड़े के आटा से निर्मित नमकीन व हलुआ। रात्रि में खीर का भोग लगता है। एकादशी की रात मेवा का खीर भोग लगाया जाता है।
आरती की विशेषता
मंगला आरती में डमरू के बोल पर स्तुति गान। शाम को सप्तर्षी आरती में डमरू व घंटे की ताल पर आरती का गान होता है। मान्यता है कि इस आरती मे सप्तऋषि स्वयं दर्शन करने मौजूद रहते हैं। शृंगार आरती के बाद बाबा के लिए चांदी का चारपायी पर राजशाही बिस्तर सजता है। चांदी के गिलास में दुग्ध भोग लगाया जाता है। शयन आरती में भक्त गान के साथ भगवान को शयन कराते हैं। मंदिर के अर्चक डॉ. श्रीकांत मिश्र ने बताया कि वैसे तो ईश्वर न सोते है न जागते हैं लेकिन सांसारिक पुरुष अपने भाव से प्रभु को शयन कराते हैं।
गौरी केदारेश्वर
शिवलिंग दो हिस्से में बंटा दिखता है। ब्रह्मवर्तक पुराण के अनुसार राजा मान्धाता हिमालय में तप कर रहे थे। हिमालय में शिव की पीठ की पूजा होती है जबकि काशी में लिंग की। स्वप्न में राजा को लिंग का दर्शन हुआ और आकाशवाणी से निर्देश मिला कि काशी में जाकर लिंग की उपासना करें। पूजन-अर्चन का सिलसिला चला। इसी दौरान मकर संक्रांति के दिन राजा ने खिचड़ी बनाई। रोज की तरह ही एक हिस्सा स्वयं और दूसरा हिस्सा ब्राह्मण के लिए अलग किया। भोग लगाकर श्रीशिव की उपासना में लीन हो गए। कुछ क्षण में ही खिचड़ी पत्थर बन गया। रोज के अनुसार ब्राह्मण भी प्रसाद लेने पहुंचे। राजा मान्धाता ने देखा की खिचड़ी, लिंग स्वरूप में हो गया। वह ईश्वर से प्रार्थना करते हुए बोले, प्रभु यह कैसी परीक्षा। इसके बाद ईश्वर प्रकट हुए। यह देख राजा नतमस्तक हो गए। प्रभु ने राजा से कहाकि खिचड़ी के दो हिस्से में मैं, शिव-सत्यात्मक और हरि-हरात्मक स्वरूप में हूं।
तिलभाण्डेश्वर
पांडे हवेली स्थित तिलभांडेश्वर महादेव के बारे में मान्यता है कि प्रत्येक दिन एक तिल के बराबर इनके आकार में बढ़ोतरी होती है। शिवपुराण में वर्णित 64 शिवलिंगों में इनके महात्म्य को सर्वोपरि बताया गया है। ऋषि विभाण्ड की तपोस्थली क्षेत्र में यह शिवलिंग स्थापित है। इसी शिवलिंग पर ऋषि विभाण्ड साधना करते थे। सावन के सोमवार व प्रदोष तिथि पर शिवलिंग के दर्शन का विशेष महत्व है।
गौतमेश्वर महादेव
काशी की सप्तऋषि यात्रा में शामिल गौतमेश्वर महादेव का मंदिर है। यह गौतम ऋषि की तपस्या से स्थापित है। काशी नरेश के उद्यान में इस मंदिर की महत्ता सावन में बढ़ जाती है। पूर्व काशिनरेश डॉ. विभूति नारायण सिंह काशी विश्वनाथ मंदिर में चोरी की घटना से व्यथित होकर इसी मंदिर में पूजन-अर्चन व रुद्राभिषेक करते रहे। आज भी यह परम्परा कायम है।
सारंगदेव
काशी खण्ड के अनुसार काशी विश्वेश्वर के साले हैं सारंगदेव। किवदंती कि मां पार्वती की मां ने अपने पुत्र सारंग को धन आदि देकर बहन तक पहुंचाने का निर्देश दिया। काशी के करीब पहुंच सारंग थक गये और सारनाथ में ही विश्राम करने लगे। स्वप्न में देखा कि शिव की नगरी काशी वैभव से परिपूर्ण है। यह देखकर सारंग पश्चाताप से घिर जाते हैं। वह वहीं बैठकर तपस्या करने लगते हैं। इधर, पार्वती तीज पर भाई के न पहंुचने से विचलित होती हैं। वह महादेव से कहती हैं। महादेव त्रिनेत्र से सारंग के हाल का बयान करते हैं। इसके बाद पति-पत्नी सारनाथ आते हैं। सारंग क्षमा याचना करते हैं तो भोलेनाथ ने कहा कि मैं प्रसन्न हूं जो मांगना है मांग लो। सारंग ने कहा कि सावन माह भर आप सपत्नीक यहीं निवास करें। इसके बाद से सावन माह में सारंग देव के दर्शन की महत्ता बढ़ गयी।
जागेश्वर महादेव
ईश्वरगंगी, नरहरपुर स्थित जागेश्वर महादेव का स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। प्रत्येक शिवरात्रि को जौ के समान इनके लिंग के आकार में वृद्धि होती है। जानकारी मिलती है कि शिवलिंग पर जब औरंगजेब के सैनिकों ने तलवार से वार किया तो रक्तधारा बहने लगी। यह देख सैनिक व औरंगजेब लौट गया। शिवलिंग पर तलवार के निशान आज भी मौजूद है। जैगीषव्येश्वर ऋषि के तप से प्रसन्न शिवजी ने वरदान मांगने के लिए कहा तो ऋषि ने कहा कि मेरे द्वारा पूजित शिवलिंग में आपका सदैव वास रहे। मान्यता है कि भगवान स्वयं इस लिंग में वास करते हैं।
कर्दमेश्वर महादेव
कंदवा स्थित कर्दमेश्वर महादेव मंदिर भी तीर्थस्थलों में विशिष्ट महत्व रखता है। पंचक्रोशात्मक ज्योतिर्लिंग काशी माहात्म्य के अनुसार कर्दमेश्वर महादेव के दर्शन करने से राजसूय यज्ञ के समान पुण्य मिलता है। नगर में पड़े पितृगण तर जाते हैं। यहंा श्राद्ध करने से गया श्राद्ध से भी बढ़कर लाभ मिलता है। यहां स्थित कुण्ड में स्नान का भी महत्व है।